कोहलबर्ग का नैतिक विकास सिद्धांत: एक गहन विश्लेषण
लॉरेंस कोहलबर्ग (1927-1987) एक अमेरिकी मनोवैज्ञानिक थे जिन्होंने नैतिक विकास के सिद्धांत को विकसित किया। यह सिद्धांत आज भी नैतिकता और नैतिक शिक्षा के क्षेत्र में सबसे प्रभावशाली सिद्धांतों में से एक है।
सिद्धांत की मुख्य विशेषताएं:
नैतिक विकास तीन स्तरों में होता है:
पूर्व-पारंपरिक स्तर (4-10 वर्ष): इस स्तर पर, बच्चे नैतिकता को बाहरी नियमों और पुरस्कारों और दंडों के आधार पर समझते हैं।
पारंपरिक स्तर (10-13 वर्ष): इस स्तर पर, नैतिकता को सामाजिक मानदंडों और नियमों के आधार पर समझा जाता है।
उत्तर-पारंपरिक स्तर (13 वर्ष और उसके बाद): इस स्तर पर, नैतिकता को व्यक्तिगत सिद्धांतों और मूल्यों के आधार पर समझा जाता है।
प्रत्येक स्तर में दो चरण होते हैं:
प्रथम चरण: यह चरण सरल और आत्म-केंद्रित होता है।
द्वितीय चरण: यह चरण अधिक जटिल और सामाजिक रूप से केंद्रित होता है।
नैतिक तर्क महत्वपूर्ण है: कोहलबर्ग का मानना था कि नैतिक विकास में नैतिक तर्क महत्वपूर्ण है। उन्होंने लोगों को नैतिक दुविधाओं के बारे में साक्षात्कार करके और उनके तर्कों का विश्लेषण करके यह निर्धारित किया कि वे किस स्तर पर थे।
कोलबर्ग मानते हैं कि यह अवस्थाएं एक क्रम में चलते हैं और उम्र से जुड़े हुए हैं। 9 साल की उम्र से पहले बच्चे पहले स्तर पर काम करते है। अधिकतर किशोर तीसरी अवस्था में सोचते पाए जाते हैं पर उनमें दूसरी अवस्था और चौथी अवस्था के सोच विचार के कुछ लक्षण भी दिखाई दे सकते हैं। प्रारंभिक वयस्कता में पहुॅचने पर कुछ थोड़े से लोग ही रूढ़िपूर्णता से ऊपर उठकर नैतिक तर्क देते है।
लेकिन वे कौन से सबूत हैं जो इस तरीके के विकास को प्रमाणित करते हैं? 20 साल के लम्बे अध्ययन के परिणामों के अनुसार उम्र के साथ अवस्था 1 और 2 का उपयोग घटा है और अवस्था 4 जो 10 साल की उम्र के बच्चों के नैतिक तर्क में बिलकुल भी नहीं आती, वह 36 साल की उम्र के 62 प्रतिशत लोगों की नैतिक सोच में दिखाई दी। पांचवी अवस्था 20 से 22 साल की उम्र तक बिल्कुल भी नहीं आती और वह कभी भी 10 प्रतिशत से ज्यादा में नहीं दिखाई देती।
इसीलिए नैतिक अवस्थाएं जैसा कि कोलबर्ग ने शुरूआत में सोचा था, उससे थोड़ी देर में आती है और छठी अवस्था में चिन्तन करना तो बहुत ऊंची अवस्थाओं में आता है, जो कि बहुत विलक्षण है। हालांकि अवस्था 6 कोहलबर्ग की नैतिक निर्णायक अंक प्रणाली से हटा दी गई है, लेकिन यह अभी भी सैद्धांतिक रूप से कोलबर्ग की नैतिक विकास की संकल्पना के लिए जरूरी मानी जाती है।
सिद्धांत का मूल्यांकन:
नैतिक विकास के बारे में हमारी समझ को बढ़ाता है: कोहलबर्ग का सिद्धांत नैतिकता के विकास को समझने में एक महत्वपूर्ण योगदान है।
नैतिक शिक्षा को विकसित करने में मदद करता है: सिद्धांत शिक्षकों को छात्रों को नैतिक तर्क विकसित करने और उच्च स्तर के नैतिक विकास को प्राप्त करने में मदद करने के लिए रणनीति विकसित करने में मदद कर सकता है।
कोलबर्ग का मानना है कि पारिवारिक प्रक्रियाएं बच्चों के नैतिक विकास के लिए कुछ खास जरूरी नहीं है। उनका कहना है कि बच्चों और माता-पिता के बीच का संबंध बच्चों को एक दूसरे की राय लेने के बहुत कम अवसर देते हैं। बल्कि बच्चों को नैतिक विकास के ज्यादा अवसर अपने दोस्तों के साथ मिलते हैं। विकासवादी व्यक्तियों का मानना है कि दोस्तों के साथ सक्रिय अनुशासन यानि तर्क को इस्तेमाल करना और बच्चों का ध्यान उनके द्वारा किए गए कार्यो के नतीजे पर ले जाने से भी उनका नैतिक विकास होता है। इसके अलावा माता-पिता के खुद के नैतिक मूल्य भी बच्चों के नैतिक विकास में सहायता करते हैं।
सिद्धांत की आलोचना:
पुरुष-केंद्रित: कुछ आलोचकों का मानना है कि सिद्धांत बहुत पुरुष-केंद्रित है और महिलाओं के नैतिक विकास को पर्याप्त रूप से नहीं समझाता है।
सांस्कृतिक रूप से सार्वभौमिक नहीं: अन्य आलोचकों का मानना है कि सिद्धांत सभी संस्कृतियों में सार्वभौमिक रूप से लागू नहीं होता है।
नैतिकता के सभी पहलुओं को नहीं समझाता: सिद्धांत नैतिकता के सभी पहलुओं को नहीं समझाता है, जैसे कि भावनाओं और सहानुभूति की भूमिका।
निष्कर्ष:
कोहलबर्ग का नैतिक विकास सिद्धांत नैतिकता और नैतिक शिक्षा के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण योगदान है। यह सिद्धांत नैतिक विकास के बारे में हमारी समझ को बढ़ाता है और शिक्षकों को छात्रों को नैतिक तर्क विकसित करने और उच्च स्तर के नैतिक विकास को प्राप्त करने में मदद करने के लिए रणनीति विकसित करने में मदद कर सकता है।
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